बोल राजा, बोल मेरे
बोल राजा, बोल मेरे! दूर उस आकाश के- उस पार, तेरी कल्पनाएँ- बन निराशाएँ हमारी, भले चंचल घूम आएँ, किन्तु, मैं न कहूँ कि साथी, साथ छन भर डोल मेरे! बोल राजा, बोल मेरे! विश्व के उपहार, ये- निर्माल्य! मैं कैसे रिझाऊँ? कौन-सा इनमें कहूँ ’मेरा’? कि मैं कैसे चढ़ाऊँ? चढ़ विचारों में, उतर जी में, कलंक टटोल मेरे। बोल राजा, बोल मेरे! ज्वार जी में आ गया सागर सरिस खारा न निकले; तुम्हें कैसे न्यौत दूँ जो प्यार-सा प्यारा न निकले; पर इसे मीठा बना सपने मधुरतर घोल तेरे। बोल राजा, बोल मेरे! श्यामता आई, लहर आई, सलोना स्वाद आया, पर न जी के सिन्धु में तू बन अभी उन्माद आया, आज स्मृति बिकने खड़ी है- झिड़कियों के मोल तेरे। बोल राजा, बोल मेरे!

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