ये जयति-जय घोष के काँटे गड़े,
लोटने ये हार सर्पों से लगे,
छोड़ कर आदर्श देव-उपासना,
बन्धु, तुम किस तुच्छ पूजा को जगे?
बँध चली ममता कसी जंजीर-सी,
यह परिस्थिति का गुनह-खाना+ बना,
घिर गये आत्मीय, मैं बेबस हुआ,
भोग की सहमार दीवाना बना।
कठिन शिष्टाचार का लंगर लगा,
मोह का, प्रतिकूल ताला पड़ गया,
वासना के संतरी-दल का सबल,
इन दृगों के द्वार पहरा अड़ गया।
था वहाँ सन, अब सदैव विकर्म की,
कह रहे हैं, रस्सियाँ बुनने लगो,
थी छटाकें चार, अब मनभर हुए,
हृदय कहता है कि सर धुनने लगो।
दूर था,--अब और भी सौ कोस पर,
हाय वह आराध्य जीवन-धन हुआ,
छोड़ दो मुझको दया होगी बड़ी,
मुक्ति क्या, यह तो महाबन्धन हुआ।