युग-ध्वनि
आग उगलती उधर तोप, लेखनी इधर रस-धार उगलती, प्रलय उधर घर-घर पर उतरा, इधर नज़र है प्यार उगलती! उधर बुढ़ापा तक बच्चा है, इधर जवानी छन-छन ढलती, चलती उधर मरण-पथ टोली, ’उनपर’ इधर तबीयत चलती! भुजदण्डों पर उधर भवानी, इधर जमाना पतित तर्क का, जग ने ठीका दे रक्खा है, उधर स्वर्ग का, इधर नर्क का! हाय सूर से सीख न पाये दो सूजी से आँखें देना विद्रोहिनी विजयिनी मीरा कहती किसे? जहर पी लेना? ओ बेमूछों के बलिपन्थी! आ इस घर में आग लगा चल, ठोकर दे, कह युग! चलता चल, युग के सर चढ़, तू चलता चल!

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