वृक्ष और वल्लरी
वृक्ष, वल्लरि के गले मत— मिल, कि सिर चढ़ जायगी यह, और तेरी मित भुजाओं— पर अमित हो छायगी यह। हरी-सी, मनभरी-सी, मत— जान, रुख लख, राह लख तू मधुर तेरे पुष्प-दल हों, कटु स्वफल लटकायगी यह। भूल है, पागल, गिरी तो यह न चरणों पर रहेगी निकट के नव वृक्ष पर, नव रंगिणी बल खायगी यह। वृक्ष, तेरे शीश पर के वृक्ष से लाचार है तू? किन्तु तेरे शीश से, उस शीश पर भी जायगी यह। यह समर्पण-ऋण चुकाना— दूर, मानेगी न छन भर तव चरण से खींच कर— रस और को मँहकायगी यह। मत कहो इसको अभागिन, यह कभी न सुहाग खोती, लिपटना इसकी विवशता— है लिपटती जायगी यह। बस निकट भर ही पड़े कि न बेर या कि बबूल देखे आम्र छोड़ करील पर आगे बढ़ी ही जायगी यह। तू झुका दे डालियाँ चढ़ पाय फिर क्यों शीश पर यह; फलित अरमानों भरी तेरे चरण आजायगी यह। फेंक दे तू भूमि पर सब फूल अपने और इसके हुआ कृष्णार्पण कि तेरी बाँसुरी बन जायगी यह! प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो प्यार पाकर सूखती है, कलम कर दे लिपटना फिर सौ गुनी लिपटायगी यह। नदी का गिरना पतन है वल्लरी का शीश चढ़ना, पतन की महिमा बनी तब शीश पर हरियायगी यह। मत चढ़ा चंदन चरण पर मत इसे व्यंजन परोसे कुंभिपाकों ऊगती आई; वहीं फल लायगी यह। सहम मत, तेरे फलों का कौन-सा आलम्ब बेली? तू भले, फल दे, न दे, अपनी बहारों आयगी यह। किस जवानी की अँधेरी-- में बढ़े जा रहे दोनों बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँ कौन-सा दिन लायगी यह। फेंक कर फूलों इरादे, भूमि पर होना समर्पित, सिर उठाकर पुण्य भू का पुण्य-पथ समझायगी यह। एक तेरी डालि छूटे, दूसरी गह ले गरब से डालि जो टूटी, कि अबला-- सिद्ध कर दिखलायगी यह। मेह की झर है न तू, जो-- मौसमों में बरस बीते, नेह की झर सूखकर तुझको अवश्य सुखायगी यह। तू तरुणता का सँदेशा भूमि का विद्रोह प्यारे, शीश पर तू फूल ला, बस चरण में बस जायगी यह। या कि इसको हृदय से ऐसी लपेट की दाँव भूले सूर्य की संगिनि दुपहरी- सी स्वयं ढल जायगी यह। रे नभोगामी, न लख तू रूप इसका, रंग इसका, तू स्वयं पुरुषार्थ दिखला तब कला बन जायगी यह। लता से जब लता लिपटे? गर्व हो? किस बात का हो? तू अचल रह, स्वयं चल कर ही चरण पर आयगी यह। भूमि की इच्छा, मिलन की- साध, मिटने की प्रतीक्षा- तब अमित बलशालिनी है जब तुझे पा जायगी यह! चढ़न है विश्वास इसका, लिपटना इसकी परमता, जो न चढ़ पाई कहीं तो नष्ट मुरझा जायगी यह। पहिन कर बंधन, न बंधन में इसे तू जान गाफ़िल, जिस तरफ फैली कि नव- बन्धन बनाती जायगी यह। डालियाँ संकेत विभु के वल्लरी उन्माद भाषा, लिपटने के तुक मिलाते छन्द गढ़ती जायगी यह। और जो होना समर्पण है, इसी की साध बनकर शीश ले इसके फलों को तब बहारों आयगी यह।

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