उधार के सपने
बहुत बोल क्या बोलूँ ये सब सपने हैं उधार के राजा। बहुत भले लगते हैं; गहने अपने हैं उधार के राजा! तुझे जोश आता है, देखा; तुझे क्रोध आता है, माना। पर ’हमने’ अपने दाता की हरी पुतलियों को पहिचाना? तू उनका युग-युग का दुश्मन, तू उनकी है आज जरूरत, एक साथ रख देख, सलोने, उनकी सूरत और जरूरत। तब फिर जोड़ लगाओ प्रहरी, क्या खो-खोकर, क्या-क्या पाया, जीता कौन? पछाड़ा किसने! किसका अर्पण किसकी, माया। तेरी एक-एक बोली पर, सौ-सौ सिर न्यौछावर राजा। दिल्ली के सिंहासन से टुक, जी के सिंहासन पर आजा। वह नेपाल प्रलय का प्रहरी, वहाँ क्रान्ति की स्फूर्ति जगी है? जल न उठे एशिया, वहाँ के हिम-खण्डों में आग लगी है। भारत माँ का वह सिंगार काश्मीर, कि जिस पर जग ललचाया, धन्य भाल, नव मुण्डमाल दे, जिसे देश ने आज बचाया। केशर के बागों में क्या, अमरीका अंगारे बोवेगा? क्या स्वर्गोपम धराधीश काश्मीर, पीढ़ियों तक रोवेगा? फिर क्या होंगे तीस कोटि नरमुण्डों के दुनियाँ में मानी? क्यों कोई मानेगा भारत माँ के कोंखों फली जवानी? बधिक न जीने देगा क्या काश्मीरी कस्तूरी के वे मृग? क्या जंजीरों से जकड़े दीखेंगे देव! वितस्ता के मग? क्या डालर के हाथ बिकेंगे रूप-राग-अस्मत ओ मानी? क्या नागासाकी बनने का भय दे अणु छीनेगा पानी? डालर, हँसिया और हथौड़ा—दो चक्की के पाटों पिसकर, क्या एशिया चूर्ण कर देगा, कोटि-कोटि शिर कोटि-कोटि कर? री छब्बिस जनवरी! याद की आजादी की सप्तम सीढ़ी फलने दे स्वातंत्रय-देश में सौ-सौ बरसों सौ-सौ पीढ़ी। वेदों से मंत्रित ओ बहना! तेरी माँग भरी रहने दे; बापू के व्रत पर वे शपथें-- तेरी, देवि खरी रहने दे। हिमगिरि की अभिषेक-धार निशि-दिन क्षण-पलक झरी रहने दे! शस्य श्यामला माँ की गोदें बन्धन-मुक्त हरी रहने दे। तेरे चरण धुलें सागर से हो तेरा ललाट हेमांचल, होता हो अभिषेक कल्प तक, झरता रहे अमर गंगाजल! हाँ मणिपुरी लिये ताण्डव तक प्रणय-प्रलय नर्तन-ध्वनि गूँजे! रागों में अनुराग बाँध, संगीत— तुम्हारे स्वर-पद पूजे। वंशी-वीणा वाद्य-मंत्र हों, तलवारें हो भाषा टीका शिर उट्ठें, शिरदान-शपथ लें, अपना रहे लाल ही टीका। अर्ध-रात्रि में सोरठ गूँजे, उषः ’भैरवी’ पर दृग खोलें प्रातः शस्त्र-शास्त्र-अभिमंत्रित हों तब ’भैरव’ के स्वर बोलें। मीरा के वे गिरिधर नागर धन्य कर दिया विष का प्याला, सूर श्याम तू धन्य कि आँखें खोकर भी जग किया उजाला! मिला राम को देश-निकाला सीता सागर पार लुटी जब तब हमने एशिया-खण्ड में रामराज्य का डेरा डाला! इधर राम ने दे दी ठोकर, उधर भरत ने भी ठुकराया। तभी ’अवध’ के सिंहासन पर विजयी रामराज्य हरषाया! इक-इक पद पर सौ-सौ टूटें, ’कहैं कबीर सुनो भाई साधो’ अपनी इक अनमोल अकल पर रामराज्य का स्वाँग न बाँधो। देख विनोबा के स्वर में गरबीली माता बोल रही हैं, कोटि हृदय मिल-मिल उठते हैं कैसा अमृत घोल रही हैं? भूमिदान की इस वाणी से आज हमारा केन्द्र सुरक्षित, बापू की यादें, योद्धा की गति, अपना राष्ट्रेन्द्र सुरक्षित; भारतीय संस्कृति के स्वर को, प्रिय सन्देहों से मत घूरो, जले ’योजना दीप’ सतत, तो उसमें ’स्नेह-भावना’ पूरो!

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