चले समर्पण आगे-आगे
यों मरमर मत करो आम्र--वन गरबीले युग बीत न जाएँ, रहने दो वसन्त को बन्दी, कोकिल के स्वर रीत न जाएँ। उठीं एशिया की गूजरियाँ, मोहन के वृत, मोहन में रत, दानव का बल बढ़ न जाय, वे इस घर से भयभीत न जाएँ। लो इस बार सुलग उट्ठी है ज्वाला हिम के वरदानों पर, सँभल-सँभल सपने लिख गाफिल गलती हिम की चट्टानों पर। गंगा, जमना, सिन्धु, ब्रह्मपुत्रा का वैभव देने वाला, वही नगाधिप आज हो रहा, भीख प्राण की लेने वाला। वे कश्मीरी कस्तूरी के मृग भागे-भागे फिरते हैं, केसर के सुहाग-खेतों में अरि के अंगारे घिरते हैं। आज वितस्ता के पानी में लग न उठे आगी लो घाओ, गर्व न करो उच्च शिखरों का केसरिया बन उन्हें बचाओ। गंगा के पानी से मीठा हो शिर दान नगर का पानी, कथाकली से पहले होवे, शिव के ताण्डव की अगवानी। मोहन के स्वर, मोहन के वृत, मोहन का वृन्दावन जागे, सिद्धिदासियाँ पीछे-पीछे चले समर्पण आगे-आगे।

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