तरुणई का ज्वार
तरुणई ज्वार बन कर आई। वे कहते मुझसे गई उतर, मैंने देखा वह चढ़ छाई। जीवन का प्यार खोलती है, माँ का उभार खोलती है, विष-घट खाली कर अमृत से घट भर कर मस्त डोलती है। आशा के ऊषा द्वार खोल, सूरज का सोना ले आई। तरुणई ज्वार बन कर आई। तुझको लख युग मुख खोल उठा, बेबस तब स्वर में बोल उठा, तेरा जब दिव्य गान निकला, लख, कोटि-कोटि सिर डोल उठा। युग चला सजाने आरतियाँ, युग बाला पुष्प-माल लाई। तरुणई ज्वार बन कर आई। तू बल दे गिरतों को उबार, तू बल दे उठतों को सँवार, तू बल दे मस्तक वालों को, मस्तक देने का स्वर उचार। जगमग-जगमग उल्लास उठा, अनहोनी साध उतर आई। तरुणई ज्वार बन कर आई। ये तार और वे गान? कि चल, गति के गहने, अमरत्व सबल, तू पहिन, और चल, सुधी अमर, तू नया-नया पहुँचे घर-घर, केहरि काँपे, हरि तेरा पथ, चमका दें, तरुणाई आई। तरुणई ज्वार बन कर आई। स्वर तेरा उसमें प्रभु लहरे, स्वर तेरे में, सुहाग ठहरे, स्वर तेरे हों गहरे-गहरे, स्वर तेरे, युग गर्वित थहरे, तू युग-सा अमर उठा बंसी, अमरता फूँक वह घर आई। तरुणई ज्वार बन कर आई। तेरे स्वर में, युग भाग जगे, तरुणों में मादक आग जगे, जग उठें, ज्वाल मालाएँ वे, जिनसे माँ का अनुराग जगे। उठ उठ प्रकाश के साथ वायु, तव अमृत-ध्वनि गाने आई। तरुणई ज्वार बन कर आई।

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