दूध की बूँदों का अवतरण
गो-स्तनों पर घूमने वाली अँगुलियाँ कह रही थीं! दूध में मीठा न डालो उसे अपमानित न कर दो, प्राण ’थर’ बन तैरते हैं उन्हें निष्प्राणित न कर दो। ले मलाई से दृगों के पोर, गो-स्तन खींच लाये, बँधे धेनु-किशोर का अधिकार लूट, उलीच लाये। दूध की धारा मृदंगिनि जन्म का स्वर रुदन बोली कंकणों की मधुर ध्वनि ने वलय-मयी मिठास घोली। विवश उनकी रात की बाँधी, उसाँसें छूटती थीं दूध की हर बूँद पर, तड़पन लिये थी, टूटती थी। और माटी की मटकिया गोद पर ’घन’ सी बनी थी, मधुर उजले प्राण भर कर प्रणय के मन-सी बनी थी। वन्य-टेकड़ियाँ छहर दुग्धायमान गुँजार करतीं, विश्व-बालक को पिलाने दुग्ध-पारावार भरतीं। उषा का उजला अँधेरा तारकों का रूप लेकर दूध की हर बूँद पर कुर्बान था, तारुण्य देकर। दूर पर ठहरे बिना वह विन्ध्य झरना झर रहा था, मथनियों के बिन्दु-शिशु-मुख बोल अपने भर रहा था। गगन से भूलोक तक यह अमृत-धारा बह रही थी। गो-स्तनों पर घूमने वाली अँगुलियाँ कह रही थीं!

Read Next