ध्वनि बिखर उठी
हास्य का प्रपात, प्राण मेरु से गिरा कि ध्वनि बिखर उठी! और एक कान पर रखे करारविन्द छबि निखर उठी। हास्य-तंत्र हो गया जहान, यों कि उग उठा खेत-खेत! यों प्रवाहमान, नेह हो उठा कि भीग बही रेत-रेत! कनखियाँ मचल उठीं कि चुटकियाँ मरोर दें। हों उबासियाँ, उदासियाँ कि चुहुल जोर दें। खीझ, रीझ से हजार यों बिगड़-बिगड़ उठी। हास्य का प्रपात, प्राण-मेरु से गिरा-- कि ध्वनि बिखर उठी।

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