आँसू से
अरे निवासी अन्तरतर के हृदय-खण्ड जीवन के लाल त्रास और उपहास सभी में रहा पुतलियाँ किये निहाल। संकट में वह गोद, मोद कर जहाँ टपकता धन्य रहा, मार-मार में गिर न हठीले निर्जन है, मैं वन्य रहा। ठहर जरा तुझ से प्यारे के चरण कमल धुल जाने दे और जोर से सिसक सकूँ वे मंजुल घड़ियाँ आने दे।

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