ओ तृण-तरु गामी
सिर से पाँव, धूलि से लिपटा, सभ्यों में लाचार दिगम्बर, बहते हुए पसीने से बनती गंगा के ओ गंगाधर; ओ बीहड़ जंगल के वासी, अधनंगे ओ तृण-तरु गामी एक-एक दाने को रोते, ओ सारी वसुधा के स्वामी! दो आँखों से मरण देखते लाल नेत्र तीजा बिन खोले ओ साँपों के भूषणधारी धूर्त जगत में ओ बंभोले! गिरि-पति गिरि-जा को संग लेकर, बजा प्रलय डमरू प्रलयंकर, तेरा प्रलय देखने आया, दिखा मधुर-ताण्डव ओ नटवर!

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