युग-पुरुष
उठ-उठ तू, ओ तपी, तपोमय जग उज्ज्वल कर गूँजे तेरी गिरा कोटि भवनों में घर-घर गौरव का तू मुकुट पहिन युग के कर-पल्लव तेरा पौरुष जगे, राष्ट्र-- हो, उन्नत अभिनव। तेरे कन्धों लहरावे, प्रतिभा की खेती, तेरे हाथों चले नाव, जग-संकट खेती। तुझ पर पागल बने आज उन्मत्त जमाना, तेरे हाथों बुने सफलता ताना-बाना। तू युग की हुंकार, अमर जीवन की वाणी, तेरी साँसें अमर हो उठें, युग-कल्याणी। तेरा पहरेदार, विन्ध्य का दक्षिण उत्तर, तेरी ही गर्जना, नर्मदा का कोमल स्वर। तेरी जीवित साँस आज तुलसी की भाषा, तेरा पौरुष सतत अमर जीवन की आशा। जाग-जाग उठ तपी तुझे जग का आमंत्रण विभु दे तुझको उठा सौंप कर अमृत के कण। तेरी कृति पर सजे हिमालय रजत-मुकुट-सा, सिन्धु, इरावति बने सुहावन वैभव घट-सा, गंगा-जमुना बहें तुम्हारी उर-माला-सी, विहरित हरित स्वदेश करें, कृषि-जन-कमला-सी। कमर-बन्द नर्मदा बने उठ सेना-नायक। शस्त्र-सज्जिता तरल तापती बने सहायक। तेरी असि-सी लटक चलें कृष्णा कावेरी, आज सृजन में होड़ लगे विधना से तेरी। लिख-लिख तू ओ तपी जगा उन्मत्त जमाना जिसने ऊँचा शीश किये जग को पहचाना। तू हिमगिरि से उठा कुमारी तक लहराया, रतनाकर ले आज चरण धोने को आया। उठ ओ युग की अमर-साँस, कृति की नव-आशा, उठ ओ यशोविभूति, प्रेरणा की अभिलाषा, तेरी आँखों सजे विश्व की सीमा-रेखा, अंगुलियों पर रहे, जगत की गति का लेखा।

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