पर्वत की अभिलाषा
तू चाहे मुझको हरि, सोने का मढ़ा सुमेरु बनाना मत, तू चाहे मेरी गोद खोद कर मणि-माणिक प्रकटाना मत, तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत, लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत, जगती-तल का मल धोने को भू हरी-हरी कर देने को गंगा-जमुनाएँ बहा सकूँ यह देना, देर लगाना मत।

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