कुछ पतले पतले धागे
कुछ पतले-पतले धागे मन की आँखों के आगे! वे बोले गीतों का स्वर, गीतों की बातों का घर, हौले-हौले साँसों में टूटा है, जी जगती पर, प्राणों पर सावन छाया, जिस दिन श्यामल घन जागे। द्रव पतले-पतले धागे, मन की आँखों के आगे। अपनी कीमत दो कौड़ी-- कर, मैं उनके पथ दौड़ी, दृग-पथ-गति से घबराकर, प्रभु-माया हुई कनौड़ी, ज्यों-ज्यों सूझों ने पकड़ा, त्यों-त्यों स्मृतियों से भागे। मन की आँखों के अपने, वे सपने वाले धागे। किस देश-निवासी हो तुम, किस काल-श्याम की भाषा, कब उतरोगी अन्तर में, कवि की गरबीली आशा। मैं सह लूँगा आँखों के। ये उल्कापात अभागे, जो पा जाऊँ सूझों के, मैं पतले-पतले धागे! क्यों नभ में ये चमकीले, दाने बिखेर डाले हैं, किस-दुनियाँ के दृग-मोती, किस श्यामा के छाले हैं। ये इतनी टीसों य घन, मिल गये किसे मुँह माँगे? मधु-याद-वधू के स्वर के नव पतले-पतले धागे!

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