वन-झरने की धार
मुड़ी डगर मैं ठिठक गया। वन-झरने की धार साल के पत्ते पर से झरती रही। मैं ने हाथ पसार दिये, वह शीतलता चमकीली मेरी अँजुरी भरती रही। गिरती बिखरती एक कल-कल करती रही : भूल गया मैं क्लान्ति, तृषा, अवसाद; याद बस एक हर रोम में सिहरती रही। लोच-भरी एड़ियाँ- लहरती तुम्हारी चाल के संग-संग मेरी चेतना विहरती रही। आह! धार वह वन-झरने की भरती अँजुरी से झरती रही। और याद से सिहरती मेरी मति तुम्हारी लहरती गति के साथ विचरती रही। मैं ठिठक रहा मुड़ गयी डगर वन-झरने-सी तुम मुझे भिंजाती चली गयीं सो चली गयीं...

Read Next