कदंब कालिंदी (दूसरा वाचन)
अलस कालिन्दी-कि काँपी टेरी वंशी की नदी के पार। कौन दूभर भार अपने-आप झुक आयी कदम की डार धरा पर बरबस झरे दो फूल। द्वार थोड़ा हिले- झरे, झपके राधिका के नैन अलक्षित टूट कर दो गिरे तारक बूँद फिर-उसी बहती नदी का वही सूना कूल!- पार-धीरज-भरी फिर वह रही वंशी टेर!

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