ना जाने कोई भेष
खेतों में मद और मूसलों की दोहरी मार से त्रस्त-ध्वस्त बिछे थे यादव-वीर। सूर्य अस्त, चन्द्र अस्त, वनों के महावृक्षों के बीच बढ़ा -गुफा में फैलते सीरे-सा!- पसरा था अन्धकार! और मैं था कि सजग, सावधान, सधे पाँव, तान धनुष, बाण चढ़ा खोजता था मृग कृष्णसार! सुना तभी स्वर शर सन्धान कर छोड़ दिया बाण! लक्ष्य-सिद्ध! यों मुझे मिले वह खुला गिरा मोर-पंख का किरीट, वैजयन्ती-माल स्रस्त, छुटी पड़ी बाँसुरी, मलिनाते पैरों के सूक्ष्म घाव से निकल रेंग रहा सृपी शुभ्र, आयु-शेष : आह, मुझे इस भेस मिले नारायण : मेरे ही बाण से विद्ध!

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