अब भी यही सच है
अब भी यही सच है कि अभी एक गीत मुझे और लिखना है। अभी उस के बोल नहीं हैं मेरे पास पर एकाएक कभी लगता है कि मेरे भीतर कुछ जगता है और जैसे किवाड़ खटखटाता है और उस के साथ यह विश्वास पक्का हो आता है कि वह ज़रूर-ज़रूर लिख जाएगा... क्यों कि वह जो है न, वह धुनी है और समर्थ है और वह बन्दी नहीं रहेगा। किवाड़ चाहे खोलेगा, खुलवाएगा, तोड़ेगा, पर तभी चैन लेगा जब पार खुला दृश्य दिख जाएगा। वह धुनी है, समर्थ है केवल डेढ़ बित्ते का नहीं है समूचे मेरे साथ तदाकार है दुर्निवार है और वह बोलेगा- वह बुक्का फाड़ कर बुलवाएगा... एक गीत और जो छाती फाड़ कर उमड़े तब तक चाहे जितना घुमड़े अब भी यही सच है...

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