सुनो मैं ने कहीं हवाओं को
सुनो मैं ने कहीं हवाओं को बाँध कर एक घर बनाया है फूलों की गन्ध से उस की दीवारों पर मैं तुम्हारा नाम लिखता हूँ हर वसन्त में पतझर के पत्तों की रंगीन झरन उसे मिटा जाती है एक खड़खड़ाहट के साथ पर जाड़ों की निहोरती धूप तुम्हें घर में खड़ा कर जाती है प्रत्यक्ष : उस भरे घर से हर बहती हवा के साथ मैं स्वयं बह जाता हूँ दूर कहीं जहाँ भी तुम हो मेरी स्मृति को फिर गुँजाते कि मैं फिर सुनूँ और लिखूँ हवाओं पर तुम्हारा नाम!

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