मथो
यह अन्तर मन यह बाहर मन यह बीच कलह की -नहीं, जड़ नहीं!-मथानी। मथो, मथो, ओ मनो मथो इस होने के सागर को जो बँट चला आज देवों-असुरों के बीच! अब लो निकाल जो निकले गागर-भर! आवे जब तर तै कर लेना क्या निकला यह? अमृत? हलाहल?

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