हिमंती बयार
हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में, दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में- तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में! सिहर-सिहर झरते पत्ते पतझार के, तिर चले कहाँ पंखों पर चढ़े बयार के! -ले अन्ध वेग नौका ज्यों बिन पतवार के! जीवन है कच्चा सूत-रहूँ मैं ऊब-डूब सागर में तेरे प्यार के!

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