चलो, चलें!
जीवन-पट की धुँधली लिपि को व्यथा-नीर से धो चलें। कहाँ फूल-फल, पत्ते-पल्लव? दावानल में राख हुए सब, उजड़े-से मानस-कानन में नया बीज हम बो चलें। इच्छा का है इधर रजत-पथ उधर हमारा कंटकमय पथ, जीवन की बिखरी विभूति पर दो आँसू हम रो चलें! विश्व-नगर से लुट कर आये, यह ममत्व भी क्यों रह जाये? हो ही चुके पराजित तो अब अपनापन भी खो चलें! आँख दिये की काजल-काली, चिर-जागर से है अरुणाली, स्नेही! हम भी थके हुए हैं चिर निद्रा में सो चलें! चलो चलें! जीवन-पट की धुँधली लिपि को व्यथा-नीर से धो चलें!

Read Next