कीर
प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर, जीवन से मानो कम्प-युक्त आरक्त धार का तीक्ष्ण तीर! प्रकटित कर उर की अमिट साध, पर कर जीवन की गति अबाध, कृषि-हरित रंग में दृश्यमान उत्क्षिप्त अवनि का प्राण-ह्लाद! आरक्त कीर का चंचु, क्योंकि आरक्त सदा ही ह्लाद-गान, आरक्त कंठ-रेखा-कि ह्लाद का दुर्निवार प्राणावसान! कैसी बिखरी वह मूक पीर, उल्लसित हुआ कैसा समीर! प्रच्छन्न गगन का वक्ष चीर जा रहा अकेला उड़ा कीर!

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