कहीं राह चलते चलते
कहीं रहा चलते-चलते चुक जाएगा दिन। सहसा झुक आएगी साँझ घनेरी। घुल जाएँगे रूप धुँधलके में मृदु : पीड़ाएँ-क्षण-भर-रुक जाएँगी, करती अपने होने पर सन्देह। एक स्तब्धता से मैं जाऊँगा घिर। और साँझ फिर मेरी पहले की पहचानी होगी : पल-भर उस के भुज-बन्ध में सिहर चूम लूँगा मैं उसे उनाबी ओठों पर भरपूर। कहीं राह चलते-चलते -है मुझे ज्ञात- दिन चुक जाएगा।

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