दीपावली का एक दीप
दीपक हूँ, मस्तक पर मेरे अग्निशिखा है नाच रही- यही सोच समझा था शायद आदर मेरा करें सभी। किन्तु जल गया प्राण-सूत्र जब स्नेह नि:शेष हुआ- बुझी ज्योति मेरे जीवन की शव से उठने लगा धुआँ नहीं किसी के हृदय-पटल पर थी कृतज्ञता की रेखा नहीं किसी की आँखों में आँसू तक भी मैं ने देखा! मुझे विजित लख कर भी दर्शक नहीं मौन हो रहते हैं; तिरस्कार, विद्रूप-भरे वे वचन मुझे आ कहते हैं : 'बना रखी थी हमने दीपों की सुन्दर ज्योतिर्माला- रे कृतघ्न! तूने बुझ कर क्यों उसको खंडित कर डाला?'

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