घट
कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे बाँध गले में डोर, कूप के जल में धर दे। गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे- घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे। जैसे चाहे आज मुझे पीडि़त कर ले तू, जो जी आवे अत्याचार सभी कर ले तू। कर लूँगा प्रतिशोध कभी पनिहारिन तुझ से; नहीं शीघ्र तू द्वन्द्व-युद्ध जीतेगी मुझ से! निज ललाट पर रख मुझ को जब जाएगी तू- देख किसी को प्रान्तर में रुक जाएगी तू, भाव उदित होंगे जाने क्या तेरे मन में- सौदामिनि-सी दौड़ जाएगी तेरे तन में; मन्द-हसित, सव्रीड झुका लेगी तू माथा, तब मैं कह डालूँगा तेरे उर की गाथा! छलका जल गीला कर दूँगा तेरा आँचल, अत्याचारों का तुझ को दे दूँगा प्रतिफल!

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