तुम और मैं
मैं मिट्टी का दीपक, मैं ही हूँ उस में जलने का तेल, मैं ही हूँ दीपक की बत्ती, कैसा है यह विधि का खेल! तुम हो दीप-शिखा, मेरे उर का अमृत पी जाती हो- जला-जला कर मुझ को ही अपनी तुम दीप्ति बढ़ाती हो। तुम हो प्रलय-हिलोर, तुम्हीं हो घोर प्रभंजन झंझावात, तुम ही हो आलोक-स्तम्भ, कर देती हो आलोकित रात। मैं छोटी-सी तरिणी-सा तेरी लपेट में बहता हूँ- फिर भी पथ-दर्शन की आशा से चोटें सब सहता हूँ।

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