संध्या तारा
कभी मैं चाहता हूँ कभी पहचान लेता हूँ कभी मैं जानता हूँ चाहना-पहचानना कुछ भी नहीं बा की- तुम्हें मैं ने पा लिया है। कभी बदली की तहों में डूब जाता है सुलगता लाल दिन का, बलाका रेख-सी स्मृति की कभी नभ पार करती चली जाती है कभी आँगन में अकेले सद्य जागे मुग्ध शिशु जैसा स्वत: सम्पूर्ण तारा चमक आता है।

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