पहला दौंगरा
गगन में मेघ घिर आये। तुम्हारी याद स्मृति के पिंजड़े में बाँध कर मैं ने नहीं रक्खी, तुम्हारे स्नेह को भरना पुरानी कुप्पियों में स्वत्व की मैं ने ही नहीं चाहा। गगन में मेघ घिरते हैं तुम्हारी याद घिरती है। उमड़ कर विवश बूँदें बरसती हैं- तुम्हारी सुधि बरसती है। न जाने अन्तरात्मा में मुझे यह कौन कहता है तुम्हें भी यही प्रिय होता। क्यों कि तुम ने भी निकट से दु:ख जाना था। दु:ख सब को माँजता है और-चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु- जिन को माँजता है उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें। मगर जो हो अभी तो मेघ घिर आये पड़ा यह दौंगरा पहला धरा ललकी, उठी, बिखरी हवा में बास सोंधी मुग्ध मिट्टी की। भिगो दो, आह! ओ रे मेघ, क्या तुम जानते हो तुम्हारे साथ कितने हियों में कितनी असीसें उमड़ आयी हैं?

Read Next