अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर
'अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर' 'उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!' अनमना भी सुन सका मैं गूँजते से तप्त अन्त:स्वर तुम्हारे तरल कूजन में। 'अरे, उस धूमिल विजन में?' स्वर मेरा था चिकना ही, 'अब घना हो चला झुटपुट। नदी पर ही रहें, कैसी चाँदनी-सी है खिली! उस पार की रेती उदास है।' 'केवल बातें! हम आ जाते अभी लौट कर छिन में-' मान कुछ, मनुहार कुछ, कुछ व्यंग्य वाणी में। दामिनी की कोर-सी चमकी अँगुलियाँ शान्त पानी में। 'नदी किनारे रेती पर आता है कोई दिन में?' 'कवि बने हो! युक्तियाँ हैं सभी थोथी-निरा शब्दों का विलास है।' काली तब पड़ गयी साँझ की रेख। साँस लम्बी स्निग्ध होती है- मौन ही है गोद जिस में अनकही कुल व्यथा सोती है। मैं रह गया क्षितिज को अपलक देख। और अन्त:स्वर रहा मन में- 'क्या जरूरी है दिखना तुम्हें वह जो दर्द मेरे पास है?'

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