आखेटक
कई बार आकर्ण तान धनु लक्ष्य साध कर तीर छोड़ता हूँ मैं- कोई गिरता नहीं, किन्तु सद्य: उपलब्धि मुझे होती है : आखेटक का रस सत्वर मुझ को मिल जाता है। कभी-कभी पर निरुद्देश्य, निर्लक्ष्य, तीर से रहित धनुष की प्रत्यंचा को देता हूँ टंकार अनमना : मेरे हाथ कुछ नहीं आता, दूर कहीं, पर हाय! मर्म में कोई बिंध जाता है!

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