गोवर्धन
कल जो जला रहे थे दीप आज संलग्न-भाव से माँज रहे हैं फर्श कि कैसे दा ग तेल के छूटें। कल घर में दीवाली थी, आज गली में छोकरे कर रहे विमर्श कि कैसे गल कर बही मोम वे लूटें। कल हम पुकार कर कहते थे: 'अरे, हमें भी कोई गलबहियाँ दो!' आज यह रटना है: 'नहीं-नहीं, यह मार्ग रपटना है राम रे, कैसे भव-बन्धन टूटें!'

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