गाड़ी चल पड़ी
पैर उठा और दबा धीमी हुई गाड़ी और रुक गयी। इंजन घरघराता रहा। मैं मुड़ा, एक लम्बी दीठ-भर मेरी आँखों ने उस की आँखों को थाहा। कुछ कहा नहीं, न कुछ चाहा। फिर पैर, हाथ, तन पहले-से सध आये, दीठ की खोज चुक गयी। और गाड़ी चल पड़ी मील पर मील पर मील। मन थरथराता रहा। काल के सवालों का नहीं है मेरे पास कोई जवाब, जो उसे- या किसी को-दे सकूँ। इतना ही कि ऐसी अतर्कित चुप्पियों में मिल जाती हैं जब-तब छोटी-छोटी अमरताएँ जिस में साँस ले सकूँ।

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