अलस
भोर अगर थोड़ा और अलसाया रहे, मन पर छाया रहे थोड़ी देर और यह तन्द्रालस चिकना कोहरा; कली थोड़ी देर और डाल पर अटकी रहे, ओस की बूँद दूब पर टटकी रहे; और मेरी चेतना अकेन्द्रित भटकी रहे, इस सपने में जो मैं ने गढ़ा है और फिर अधखुली आँखों से तुम्हारी मुँदी पलकों पर पढ़ा है तो-तो किसी का क्या जाए? कुछ नहीं। चलो, इस बात पर अब उठा जाए।

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