हरा-भरा है देश
हरे-भरे हैं खेत मगर खलिहान नहीं: बहुत महतो का मान- मगर दो मुट्ठी धान नहीं। भरा है दिल पर नीयत नहीं: हरी है कोख-तबीयत नहीं। भरी हैं आँखें पेट नहीं: भरे हैं बनिये के कागज- टेंट नहीं। हरा-भरा है देश: रुँधा मिट्टी में ताप पोसता है विष-वट का मूल- फलेंगे जिस में शाप। मरा क्या और मरे इस लिए अगर जिये तो क्या: जिसे पीने को पानी नहीं लहू का घूँट पिये तो क्या; पकेगा फल, चखना होगा उन्ही को जो जीते हैं आज: जिन्हें है बहुत शील का ज्ञान- नहीं है लाज। तपी मिट्टी जो सोख न ले अरे, क्या है इतना पानी? कि व्यर्थ है उद्बोधन, आह्वान- व्यर्थ कवि की बानी?

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