जिस में मैं तिरता हूँ
कुछ है जिस में मैं तिरता हूँ। जब कि आस-पास न जाने क्या-क्या झिरता है जिसे देख-देख मैं ही मानों कनी-कनी किरता हूँ। ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे यादों के खंडहर हैं। अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं किधर आंगन, खिड़कियाँ, झरोखे; पर ये सब मेरे ही बनाए हुए घर हैं। इतना तो अब भी है कि चाहूँ तो पहचान लूँ कि कौन इसमें बसते थे, (मैंने ही तो बसाए थे, मेरे इशारों पर हँसते थे), पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर हैं! डूबते हैं, डूब जाने दो। चेहरों और घरों के साथ खाइयों और डरों को भी लय पाने दो। यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है। डूबे, सब डूब जाए, तब एक जो बुल्ला उठेगा, उभर कर फूटेगा, और उस की रंगीनी का रहेगा— क्या? कुछ नहीं! तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन अहम् ढहेगा, ढहेगा।

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