पत्रोत्कंठित जीवन का विष
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है, आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में, अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में । लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर, सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव, ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर । स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित, शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित, बीत चुका है दिक्चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के वाद्य-छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से-- क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत । मल्ल भल्ल की-- मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गए हैं । झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी। पुनः सवेरा, एक और फेरा है जी का ।

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