ऊषा अनागता
ऊषा अनागता, पर प्राची में जगमग तारा एकाकी; चेत उठा है शिथिल समीरण : मैं अनिमिष हो देख रहा हूँ यह रचना भैरव छविमान! दूर कहीं पर, रेल कूकती, पीपल में परभृता हूकती, स्वर-तरंग का यह सम्मिश्रण जाने जगा-जगा क्यों जाता उर में विश्व-स्नेह का ज्ञान! वस्तु मात्र की सुन्दरता से, जीवन की कोमल कविता से, भरा छलकता मेरा अन्तर- किन्तु विश्व की, इस विपुला आभा में कहीं न तेरा स्थान! भुला-भुला देती यह माया कहाँ तुझे मैं हूँ खो आया- यदपि सोचता बड़े यत्न से; बिखर-बिखर जाते विचार हैं पा कर यह आकाश महान!

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