प्रिय, तुम हार-हार कर जीते
प्रिय, तुम हार-हार कर जीते! जागा सोया प्यार सिहर कर, प्राण-अघ्र्य से आँखें भर-भर। स्पर्श तुम्हारे से जीवित हैं, दिन वे कब के बीते! कैसे मिलन-विरह के बन्धन? क्यों यह पीड़ा का आवाहन? कोष कभी जो साथ भरे थे हो सकते क्या रीते! प्रिय, तुम हार-हार कर जीते!

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