सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे
सब ओर बिछे थे नीरव छाया के जाल घनेरे जब किसी स्वप्न-जागृति में मैं रुका पास आ तेरे। मैं ने सहसा यह जाना तू है अबला असहाया : तेरी सहायता के हित अपने को तत्पर पाया। सामथ्र्य-दर्प से उन्मद मैं ने जब तुझे पुकारा- किस ओर से बही उच्छल, यह दीप्त, विमूर्छन-धारा? हतसंज्ञ, विमूढ हुआ मैं नतशिर हूँ तेरे आगे। तेरी श्यामल अलकों में- ये कंचन-कण क्यों जागे? क्यों हाय! रुक गया सहसा मेरे प्राणों का स्पन्दन? मुझ को बाँधे ये कैसे अस्पृश्य किन्तु दृढ़ बन्धन!

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