दोनों पंख काट कर मेरे
दोनों पंख काट कर मेरे- मुझ को ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे! थे अभ्यासी प्राण अनन्त गगन में विचरण करने के- गीतों में नभ, नभ में निज निर्बाध गीत बस भरने के। किसी विफलता में सब हेरे। आज तुम्हारी किरण कभी जो भटकी-सी आ जाती है- अक्षमता के विवश ज्ञान से और मुझे तड़पाती है। रो लेती हूँ आँखें फेरे। किन्तु तुझे क्या कहूँ कि तूने ही उडऩा सिखलाया था; क्षेत्र नहीं है, पर अनुभव-उपहार तुझी से पाया था। प्राण ऋणी हैं फिर भी तेरे! यद्यपि ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे- दोनों पंख काट कर मेरे!

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