प्रिये तनिक बाहर तो आओ
प्रिये, तनिक बाहर तो आओ, तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ! रुष्ट प्रतीची के दीवट पर करुण प्रणय का दीप जला है- लिये अलक्षित अनुनय-अंजलि किसे मनाने आज चला है? प्रिये, इधर तो देखो, तुम से इस का उत्तर पाऊँ! तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ! अरुण सकल आकाश किन्तु उस में है तारा दीप्त अकेला। अनझिप मेरी भी मनुहार, यद्यपि तुम मूर्तिमती अवहेला! अपलक-नयन इसी विस्मय में कैसे तुम्हें मनाऊँ! तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ! नभ का रोष बुझा कर तत्क्षण डूब जाएगा सन्ध्या-तारा। जाते पर अपने प्रतिबिम्बों से भर जाएगा नभ सारा!| ऐसी क्रिया प्रणय अपने में भी क्या तुम्हें बताऊँ? तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ! तुम अनुकूलो तो मैं तत्क्षण चरणों में से शीश हटाऊँ- सम्मुख हो कर अगणित गीतों की मालाएँ तुम्हें पिन्हाऊँ तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!

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