सागर और धरा मिलते थे जहाँ
सन्धि-रेख पर
मैं बैठा था।
नहीं जानता
क्यों सागर था मौन
क्यों धरा मुखर थी।
सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना
देखता था सागर को
किंतु धरा को सुनता था।
सागर की लहरों में जो कुछ पढ़ता था
रेती की लहरों पर लिखता जाता था।
मैं नहीं जानता
क्यों
मैं बैठा था।
पर वह सब तब था
जब दिन था।
फिर जब
धरती से उठा हुआ सूरज
तपते-तपते हो जीर्ण
गिरा सागर में-
तब संध्या की तीखी किरण एक
उठ
मुझे विद्ध करती सायक-सी
उसी सन्धि-रेख से बाँध
अचानक डूब गई।
फिर धीरे-धीरे
रात घेरती आई, फैल गई।
फिर अंधकार में
मौन हो गई धरा,
मुखर हो सागर गाने लगा गान।
मुझे और कुछ लखने-सुनने
पढ़ने-लिखने को नहीं रहा :
अपने भीतर
गहरे में मैंने पहचान लिया
है यही ठीक। सागर ही गाता रहे,
धरा हो मौन,
यही सम्यक स्थिति है।
यद्यपि क्यों
मैं नहीं जानता।
फिर मैं सपने से जाग गया।
हाँ, जाग गया।
पर क्या यह जगा हुआ मैं
अब से युग-युग
उसी संधि-रेख पर वैसा
किरण-विद्ध ही बँधा रहूँगा?