एक विजय और एक पराजय के बीच
मेरी शुद्ध प्रकृति
मेरा 'स्व'
जगमगाता रहता है
विचित्र उथल-पुथल में।
मेरी साँझ, मेरी रात
सुबहें व मेरे दिन
नहाते हैं, नहाते ही रहते हैं
सियाह समुन्दर के अथाह पानी में
विक्षोभित हिल्लोलित लहरों में
मेरा मन नहाता रहता है
साँवले पल में।
फिर भी, फिसलते से किनारे को पकड़कर मैं
बाहर निकलने की, रह-रहकर तड़पती कोशिश में
कौंध-कौंध उठता हूँ;
इस कोने, उस कोने
मेरी ही भाँति कहीं इसी समुन्दर की
सियाह लहरों में नंगी नहाती हैं।
किरनीली मूर्तियाँ
मेरी ही स्फूर्तियाँ
निथरते पानी की काली लकीरों के
कारण, कटी-पिटी अजीब-सी शकल में।
उनके मुखारविन्द
मुझे डराते हैं,
इतने कठोर हैं कि कान्तिमान पत्थर हैं
क्वार्ट्ज़ शिलाएँ हैं
जिनमें से छन-छनकर
नील किरण-मालाएँ कोण बदलती हैं।
एक नया पहलू रोज़
सामने आता है प्रश्नों के पल-पल में