एक स्वप्न कथा / भाग 4
मुझसे जो छूट गये अपने वे स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ, उनका आदेश क्या, क्या करूँ? रह-रहकर यह ख़याल आता है- ज्ञानी एक पूर्वज ने किसी रात, नदी का पानी काट, मन्त्र पढ़ते हुए, गहन जल-धारा में गोता लगाया था कि अन्धकार जल-तल का स्पर्श कर इधर ढूँढ, उधर खोज एक स्निग्ध, गोल-गोल मनोहर तेजस्वी शिलाखण्ड तमोमय जल में से सहज निकला था; देव बना, पूजा की। उसी तरह सम्भव है- सियाह समुन्दर के अतल-तले पड़ा हुआ किरणीला एक दीप्त प्रस्तर - युगानुयुग तिमिर-श्याम सागर के विरूद्ध निज आभा की महत्त्वपूर्ण सत्ता का प्रतिनिधित्व करता हो, आज भी। सम्भव है, वह पत्थऱ मेरा ही नहीं वरन् पूरे ब्रह्माण्ड की केन्द्र-क्रियाओं का तेजस्वी अंश हो। सम्भव है, सभी कुछ दिखता हो उसमें से, दूर-दूर देशों में क्या हुआ, क्यों हुआ, किस तरह, कहाँ हुआ, इतने में कोई आ कानों में कहता है-- ऐसा यह ज्ञान-मणि मरने से मिलता है; जीवन के जंगल में अनुभव के नये-नये गिरियों के ढालों पर वेदना-झरने के, पहली बार देखे-से, जल-तल में आत्मा मिलती है (कहीं-कहीं, कभी-कभी) अरे, राह-गलियों में पड़ा नहीं मिलता है ज्ञान-मणि। हाय रे! मेरे ही स्फूर्ति-मुख मेरा ही अनादर करते हैं, तिरस्कार करते हैं, अविश्वास करते हैं! मुझे देख तमतमा उठते हैं। क्रोधारुण उनका मुख-मण्डल देखकर लगता है, छिड़ने ही वाली है युग-व्यापी एक बहस उभरने वाली है बेहद जद्दोजहद ? बहुत बड़ा परिवर्तन सघन वातावरण होने ही वाला है; जिसके ये घनीभूत अन्धकार-पूर्ण शत पूर्व-क्षण महान अपेक्षा से यों तड़प उठते हैं कि मेरे ही अंतःस्थित संवेदन मुझपर ही झूम, बरस, गरज, कड़क उठते हैं। उनका वार बिलकुल मुझी पर है; बिजली का हर्फ़ सिर्फ़ मुझपर गिर तहस-नहस करता है; बहुत बहस करता है

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