जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 4
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे मानो जीवन सरिता जलते कूलोंवाली, इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों बहती है तरुणों की आत्मा प्रतिभाशाली अपने भीतर प्रतिबिम्बित जीवन-चित्रावलि, लेकर ज्यों बहते रहते हैं, ये भारतीय नूतन झरने अंगारों की धाराओं से विक्षोभों के उद्वेगों में संघर्षों के उत्साहों में जाने क्या-क्या सहते रहते । लहरों की ग्रीवा में सूरज की वरमाला; जमकर पत्थर बन गए दुखों-सी धरती की प्रस्तर-माला जल-भरे पारदर्शी उर में !! सम्पूरन मानव की पीड़ित छवियाँ लेकर जन-जन के पुत्रों के हिय में मचले हिन्दुस्तानी झरने मानव युग के । इन झरनों की बलखाती धारा के जल में — लहरों में लहराती धरती की बाहों ने बिम्बित रवि-रंजित नभ को कसकर चूम लिया, मानव-भविष्य का विजयाकांक्षी आसमान इन झरनों में अपने संघर्षी वर्तमान में घूम लिया !! ऐसा संघर्षी वर्तमान — तुम भी तो हो, मानव-भविष्य का आसमान — तुममें भी है, मानव-दिगन्त के कूलों पर जिन लक्ष्य अभिप्रायों की दमक रही किरनें वे अपनी लाल बुनावट में जिन कुसुमों की आकृति बुनने के लिए विकल हो उठती हैं — उसमें से एक फूल है रे, तुम जैसा हो, वह तुम ही हो. इस रिश्ते से, इस नाते से यह भारतीय आकाश और पृथ्वीतल, बंजर ज़मीन के खण्डहर के बरगद-पीपल ये गलियाँ, राहें घर-मंजिल, पत्थर, जंगल पहचानते रहे नित तुमको जिन आँखों से उन आँखों से मैंने भी तुमको पहचाना, मानव-दिगन्त के कूलों पर जिन किरनों का ताना-बाना उस रश्मि-रेशमी क्षितिज-क्षोभ पर अंकित नतन-व्यक्तित्वों के सहस्र-दल स्वर्णोज्ज्वल — आदर्श बिम्ब मानव युग के ।

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