जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 7
कोई स्वर ऊँचा उठता हुआ बींधता चला गया । उस स्वर को चमचमाती-सी एक तेज़ नोक जिसने मेरे भीतर की चट्टानी ज़मीन अपनी विद्युत से यों खो दी, इतनी रन्ध्रिल कर दी कि अरे उस अन्धकार भूमि से अजब सौ लाल-लाल जाज्ज्वल्यमान मणिगण निकले केवल पल में देदीप्यमान अंगार हृदय में संभालता हुआ उठता हूँ इतने में ही जाने कितनी गहराई में से मैंने देखा गलियों के श्यामल सूने में कोई दुबली बालक छाया असहाय ! रोती चली गयी !! दुनिया के खड़े डूह दीखे वीरान चिलचिलाहट में फटे चीथ चमके थे छोर गरीब साड़ियों के नन्हे बुरकों की बाहें भीतर फँसी झाड़ियों उन्हें देखता रहा कि इतने में ढूहों में से झाड़ी में से ही उधर निकली वीरान हवा की लहरों पर पीली-धुंधली उदास गहरी नारी-रेखा उसकी उंगली पकड़ चलती कोई बालक-झाईं मैंने देखी वीरान हवा की लहरों पर पैरों पर मैं चंचलतर हूँ जब इसी गली के नुक्कड़ पर मैंने देखी वह फक्कड़ भूख उदास प्यास निःस्वार्थ तृषा जीने-मरने की तैयारी मैं गया भूख के घर व प्यास के आँगन में चिन्ता की काली कुठरी में, तब मुझे दिखे कार्यरत वहाँ विज्ञान-ज्ञान नित सक्रिय हैं सब विश्लेषण संस्लेषण में मुझ में बिजली की घूम गई थरथरी उद्दाम ज्ञान संवेदन की फुरफुरी हृदय में जगी तन-मन में कोई जादू की-सी आग लगी मस्तिष्क तन्तुओं में से प्रदीप्त वेदना यथार्थों की जागी यद्यपि दिन है सब ओर लगाते आग विद्युत क्षण हैं किन्तु अंधेरे में — अपनी उठती-गिरती लौ की लीलाओं में अपनी छायाओं की लीला देखता रहा अन्तर आपद्-ग्रस्ता आत्मा नमकीन धूल के गरम-गरम अनिवार बवण्डर सी घूमी फिर छितर गयी या बिखर गयी पर अजब हुआ कुछ मटियाले पैरों के उसने पैर छुए अद्विग्न मनःस्थिति में जीवन के रज धूसर पद पर आँखें बन कर, वह बैठ गयी, भीतरी परिस्थिति में । मस्तिष्क तन्तुओं में प्रदीप्त वेदना यथार्थों की जागी वह सड़क बीच हर राहगीर की छाँह तले उसका सब कुछ जीने पी लेने को उतावली यह सोच कि जाने कौन वेष में कहाँ व कितना सच मिले — वह नत होकर उन्नत होने की बेचैनी  !

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