जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 3
दुबली चम्पा जन संघर्षों में गदरायी, खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे जीवन संघर्षों में घुमड़े उमड़े चक्की के गीतों में कल्याणमयी करुणाओं के हिन्दुस्तानी सपने निखरे — जिस सुर को सुन कूएँ की सजल मुँडेर हिली प्रातः कालीन हवाओं में । सूरज का लाल-लाल चेहरा डोला धरती की बाहों में, आसक्ति भरा रवि का मुख वह । उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं — उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में यों दावाग्नि लगी मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी सिर जलता है, कन्धे जलते । यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की रे नौजवान, इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा भौहों पर मेघों-जैसा विद्युत भार विचारों का लेकर पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे चलते जन-जन के साथ वे हैं आगे वे हैं पीछे । अगजाजी खोहों और खदानों के तल में ज्यों रत्न-द्वीप जलते त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में जीवन के सत्य-दीप पलते !!

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