जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 2
अपने समुंदरों के विभोर मस्ती के शब्दों में गम्भीर तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा । जन-संघर्षों की राहों पर आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं । अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी थी ताकत हिय में सरसायी । घर-घर के सजल अंधेरे से मेघों ने कुछ उपदेश लिए, जीवन की नसीहतें पायीं । जन-संघर्षों की राहों पर गम्भीर घटाओं ने युग जीवन सरसाया । आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया । ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है ज़िंदगी नशे सी छायी है नव-वधुका बन यह बुद्धिमती ऐसी तेरे घर आई है । रे, स्वयं अगरबत्ती से जल, सुगंध फैला जिन लोगों ने अपने अंतर में घिरे हुए गहरी ममता के अगुरू-धूम के बादल सी मुझको अथाह मस्ती प्रदान की वह हुलसी, वह अकुलायी इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर । जिनके स्वभाव के गंगाजल ने, युगों-युगों को तारा है, जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है, कल्याण व्यथाओं मे घुलकर जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया पार लगायी है, जिनके कि पूत-पावन चरणों में हुलसे मन — से किये निछावर जा सकते सौ-सौ जीवन, उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर मेरे भीतर, मेरे भीतर । उनकी बाहों को अपने उर पर धारण कर वरमाला-सी उनकी हिम्मत, उनका धीरज, उनकी ताकत पायी मैंने अपने भीतर । कल्याणमयी करुणाओं के वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैसे उनकी उस सहजोत्सर्गमयी आत्मा के कोमल पंख फँसे मेरे हिय में, मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा उनके ही तो । यादें उनकी कैसी-कैसी बातें लेकर, जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण दुःखान्त साँझ दुर्दान्त भव्य रातें लेकर यादें उनकी मेरे मन में ऐसी घुमड़ीं ऐसी घुमड़ीं मानो कि गीत के किसी विलम्बित सुर में — उनके घर आने की बेर-अबेर खिली, क्रान्ति की मुस्कराती आँखों — पर, लहराती अलकों में बिंध, आंगन की लाल कन्हेर खिली । भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम, जनपथ पर मरे शहीदों के अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम, लेखक की दुर्दम कलम चली ।

Read Next