जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 6
ईमानदार संस्कार-मयी सन्तुलित नयी गहरी चेतना अभय होकर अपने वास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से मेरे सहचर हैं ढहा रहे वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता । उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा जब मेरे भीतर मंडरायी मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं । कागज़ की भूरी छाती पर नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय कमल खिला रवि का । शब्दों-शब्दों में वाक्यों में मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला उसकी विश्वाकुल एक किरन तुम भी तो हो, धरती के जी को अकुलानेवाली छवि-मधुरा कविता की प्यारी-प्यारी सी एक कहन तुम भी तो हो, वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में उगे आक के फूलों के नीले तारे, मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी चम्पा के साथ उगे प्यारे, मानो जहरीले अनुभव में मानव-भावों के अमृतमय शत-प्रतिभाओं के अंगारे, उनकी दुर्दान्त पराकाष्ठा की एक किरन तुम भी तो हो !! अपने संघर्षों के कडुए अनुभव की छाती के भीतर दुर्दान्त ऐतिहासिक दर्दों की भँवर लिये तुम-जैसे-जन मेरे जीवन निर्झर के पथरीले तट पर आ खड़े हुए, तब मैंने नहीं पुकारा — 'तुम आ जाओ' तब मैंने नहीं कहा था यों मेरे मन की जल धारा में तुम हाथ डुबो, मुँह धो लो, जल पी लो, अपना मुख बिम्ब निहारो तुम । जब मेरे मन की पथरीली निर्झर धारा के फूलों पर, गहरी धनिष्ठता की असीम गम्भीर घटाएँ घुमड़ी थीं, गम्भीर मेघ-दल उमड़े थे, औ' जीवन की सीधी सुगन्ध जब महकी थी ईमाम-भरे-बेछोर सरल मैदानों पर तब क्यों सहसा तूफानी मेघों के हिय में तुम विद्युत की दुर्दान्त व्यथा-सी डोली थीं, तब मैंने कहा था अपनी आँखों में भावातिरेक तुम दरसाओ । जब आसमान से धरती तक आकस्मिक एक प्रकाश-बेल विद्युत की नील विलोल लता-सी सहसा तुम बेपर्द हुईं जब मेरे-मन-निर्झर-तट पर तब मैंने नहीं कहा थी मुझको इस प्रकार तुम अपना अंतर का प्राकार बना जाओ । लेकिन संघर्षों के पथ पर ऐसे अवसर आते ही हैं, ऐसे सहचर मिलते ही हैं, नभ-मण्डल में खुद को उद्घाटित करता चलता है सूरज इस प्रकार, जीवन के प्रखर-समर्थक से प्रश्न-चिन्ह बौखला रहे हों दुर्निवार !!

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